(सैरबीन १- १५ सितम्बर १९९१ राष्ट्रीय चर्चा का हिंदी पाक्षिक अखबार के पेज दृष्टिकोण में प्रकाशित लेख)
आखिर कार करोड़ों हिंदुस्तानियों के बलिदान के बाद भारत आज़ाद हुआ और नागरिकों ने आज़ादी में साँस ली | हर पुरुष और स्त्री ने अहसास किया कि अब ज़ुल्म और ज्यादिती के दिन गुजर गये अब हमारे अधिकार हमें मिलने से कोई नहीं रोक सकता है | अब शोषण से हमें निजात मिल गई है, लेकिन हमें यह नहीं मालूम है कि हम अभी भी मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुये हैं | शायद यही कारण है कि भारत में पुरुष जहाँ चाहता है स्त्री पर ज़ुल्म और ज्यादती करता है और अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिये कानूनों का संरक्षण प्राप्त कर लेता है, जबकि सामाजिक एवं राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर स्त्री को पुरुषों के समान अधिकार दिलाये जाने की वकालत की जाती है लेकिन यही पुरुष क़ानून को बनाते समय स्त्री को कितना अपने समान अधिकार देता है इसके दृष्टांत आपको समय समय पर मिलते रहते हैं | भारत में यूं तो तरह तरह के झगड़े हैं अलगाववाद अपनी चरम सीमा पर है कहीं क्षेत्रवाद, जातिवाद और तो कहीं संप्रदायवाद को लेकर लोग बटे हुये हैं और अपना अपना गिरोह बनाये हुये हैं | इसके पक्ष और विपक्ष में आवाज़ें उठाते हैं आंदोलन चलाते हैं लेकिन जहाँ स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिलाने की बात आती है वहाँ उस मुद्दे पर सभी पुरुष एक हो जाते हैं और सम्प्रदायवाद जैसा ज़हरीला झगड़ा भी भूल जाते हैं | क्योंकि कुछ बिंदु ऐसे भी हैं जिनपर पुरुष स्त्री के अधिकारों का शोषण बड़ी चालाकी से कर रहा है | जैसे कृषि भूमि में विरासत पाना | पुरुष वर्ग में पुत्र के वारिस होने पर स्त्री वर्ग की चाहे वह पत्नी हो अथवा पुत्री विरासत से वंचित कर दिया जाता है |
भारत की आज़ादी के बाद यहाँ के किसानों को एक बहुत बड़ी लानत से छुटकारा दिलाया गया है वह है ज़मींदारी प्रथा | इस ज़मींदारी पृथा के टूटने से ग़रीब किसानों को उनकी वह भूमि दे दी गई जिस पर वह खेती करते थे | यह एक हकीक़त है कि ज़मींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम को बनाकर भारत के राजनीतिज्ञों ने एक बहुत बड़ा काम किया है | इससे ज़मीन पर खेती करने वाले कृषकों का शोषण रुका है | उनको भूमि पर मालिकाना अधिकार प्राप्त हुये | भूमि सुधार के लिये भी क़ानून पुरुषों को लाभ पहुँचाने के लिए ही बनाये गये | आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे क़ानून के विरुद्ध न तो शाहबानो केस के हिमायती ही बोले, जिन्होंने एक मुसलमान स्त्री को तलाक़ के बाद भी मुस्लिम पर्सनल ला के विरुद्ध नान नफ़क़ा दिलाने की पुरज़ोर कोशिश की और न ही कभी आवज़ उठायी | क्योंकि इसमें दोनों ही समुदाय के पुरुषों का नुख्सान था इसलिये सभी समुदाय के पुरुष इस क़ानून के खिलाफ़ खामोश हैं और स्त्री जोकि एक अबला है अपने अधिकारों के लिये रोती, बिलखती और मजबूर होकर रह जाती है | आइये देखें कि वह कौन सा बिंदु है जहाँ पर हिन्दुस्तान के सभी समुदाय के पुरुष एक हैं |
उ०प्र० ज़मींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम में सभी समुदाय के पुरुषों के लिये समान रूप से वारिसान का वर्गीकरण किया गया है | जिससे पुरुषों को स्त्रीयों पर अहमियत दी गयी है और स्त्रीयों का अधिकार केवल स्त्री होने के नाते कम किया गया है | यदि किसी कृषक पुरुष का देहांत हो जाता है तो उसके पुत्र आदि को विरासत मिलती है और पुत्र के अथवा उसके पुत्र के पुत्र आदि के जीवत न होने पर पत्नी को कृषि भूमि में विरासत मिलती है और पत्नी के न होने पर पुत्री को विरासत मिलती है अर्थात पुत्र अथवा पुत्र आदि के जीवनकाल में पत्नी अथवा पुत्री को कृषि भूमि में कोई हिस्सा नहीं मिलता है | चाहे मृतक की पत्नी और उसकी पुत्री को वह एक समय की रोटी भी न दें | यह भी अक्सर देखा गया है कि पिता के मरने के बाद पुत्र अथवा उसके पुत्र के पुत्र आदि को सम्पूर्ण कृषि मिल जाने के बाद उसकी (मृतक) की पत्नी और पुत्रियां लावारिसों जैसी ज़िंदगियाँ गुज़ारती हैं और दाने दाने को मोहताज रहती हैं | अपने ही घर में अपने बेटे और भाईयों के परिवार की गुलामी करती हैं और इस तरह पुरुषों की दया की मोहताज रहती हैं | कभी कभी कोई पिता अपने पुत्रों के साथ अपनी पत्नी एवं पुत्रियों को भी हिस्सा वसीयत के व्दारा दे देता है तो उसकी मृत्यु के बाद यही पुरुष अपनी माँ और बहनों को अदालत में घसीटते हैं और उनको मुकद्दमें बाज़ी में उलझाकर उनसे उनका अधिकार छीन लेते हैं |
शाहबानो के वाद में उसके पति से तलाक़ के बाद रोटी कपड़ा दिलाने के लिए पूरे भारत में बहसें छिड़ी, आंदोलन हुये और आज तक उसकी मिसालें बाबरी मस्जिद और राम जन्म भूमि के मामले में भी दी जाती हैं कि अदालत का फ़ैसला हम इसलिये नहीं मानेंगे क्योंकि एक समुदाय के लोगों ने शाहबानो के वाद में अदालत का फ़ैसले को मानने से इनकार किया था | नारी के इन समर्थकों से कोई यह तो पूछे कि जब कृषि भूमि में पत्नी और पुत्री के जीवित रहते हुये पूरी की पूरी भूमि पुत्र की हैसियत से हड़प कर जाते हो तब तुम्हारी नारी के प्रति श्रद्धा कहाँ चली जाती है | तब तुम क्यों नहीं कहते कि यह क़ानून ग़लत है और हम अपनी माँ और बहनों को भी अपने बराबर हिस्सा देंगे | क्योंकि उन्होंने ने भी हमारे पिता के जीवन में इस भूमि को अपने खून पसीने से सींचा है| केवल नारी होने के कारण उसको उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये | तब न उन्हें अपनी माँ शाहबानो में और न ही अपनी बहन शाहबानो में नज़र आती है | क्योंकि यह लोग दूसरे सम्प्रदाय की नारी अधिकारों के लिए अपने दिल में दर्द रखते हैं, अपनी माँ अथवा बहनो के अधिकारों के लिए नहीं | क्योंकि अपनी माँ बहनों को उनका अधिकार देने की बात तो एक बेवकूफी के सिवाय कुछ भी नहीं है | इससे तो उनके हितों को क्षति पहुंचेगी |
ठीक उसी प्रकार शाहबानो के वाद में मुस्लिम पर्सनल ला की हिमायत करने वाले भी पर्सनल ला की हिमायत से अपना हाथ खींच लेते हैं | क्योंकि अगर पर्सनल ला से सच्ची आस्था दिखाई गई तो उससे मर्द के हकों को नुक्सान पहुंचेगा | इसलिये इस क़ानून के खिलाफ़ कोई आवाज़ ही नहीं उठाता बल्कि बड़ी खुशी के साथ और बड़े अधिकार पूर्ण ढंग से अदालतों में कार्यवाहियाँ करके अपनी माँ और बहनों का हक़ मारते हैं और अगर कोई उनकी माँ, बहनों के हक़ दिलाने के लिये पर्सनल ला की याद दिलाता है कि इसके अनुसार तो माँ को 1/8 और बहनों को आप से आधा मिलने का क़ानून है तो कहते हैं कि ऐसा क़ानून सरकार का नहीं है | मतलब यह कि उन्हें भी मुस्लिम पर्सनल ला की याद शाहबानो के तलाक़ के बाद नान नफ्का न दिलाये जाने के लिये तो आती है और अपने पर्सनल ला में किसी किस्म की मदाखलत बर्दाश्त न करने का दिखावा करते हैं | जब इसी पर्सनल ला का कृषि भूमि की विरासत में गला घोंटा जाता है तो कहते हैं कि यह तो सरकारी क़ानून है हम क्या कर सकते हैं | अगर यह कहा जाता है कि सरकार ने क़ानून बनाकर आपकी माँ, बहनों को हक़ से महरूम किया है तो आप खुद पर्सनल ला के मुताबिक़ उनको उनका हक़ बैनामा, हिबनमा आदि से दे दें | उस वक्त उन्हें न तो पर्सनल ला की हिमायत की याद आती है और न ही खुदा का खौफ़ | अक्सर पिता भी अपनी बीवी और बेटी के हकूक़ को खुद ही नहीं देना चाहता है | क्योंकि अगर वह भी खुदा से डरे तो अपनी ज़िन्दगी में ही अपने तमाम वारिसान को मुस्लिम पर्सनल ला के मुताबिक़ हिस्सा देकर वसीयत कर सकता है और बीवी और बेटी के हकूक़ के हिफाज़त कर सकता है | लेकिन वह अगर ऐसा कर भी देता है तो उसके बेटे अपनी माँ, बहनों को अदालतों में घसीटते हैं और सरकारी कानूनों के मुस्लिम पर्सनल ला के मुकाबले दुहाई देते हैं | क्योंकि कभी पर्सनल ला में तो कभी सरकारी कानूनों में अपने अधिकारों का संरक्षण करते हैं | जिसका मैं लगभग १८ वर्षों से वकालत में स्वयं मुशाहिदा कर रहा हूँ | सरकारी क़ानून से देना पड़े तो पर्सनल ला याद आता है | और इस तरह सभी समुदाय के पुरुष नारी के आधिकारों का हनन कर रहे हैं | और नारी को न तो पूर्ण स्वतंत्रता ही प्रदान करते हैं और न ही अपनी गुलामी से आज़ाद होने देते हैं प्रत्येक समुदाय का पुरुष ऐसे मामलों में आपस में एक खामोश समझौता किये हुये है |
इसलिये नारी को चाहिये कि अपने पुत्रों और भाईयों के जीवन काल में ही अपने बराबर के अधिकार के लिए संघर्ष करें और कृषि भूमि में भी बराबर का हिस्सा प्राप्त करने के लिये सरकार पर दबाव डाले फिर देखते हैं कि नारी को उसका अधिकार दिलाने वाले शाहबानो की तरह उनका किस हद तक समर्थन करते हैं और मुस्लिम पर्सनल ला के हिमायती कितना नारी को उसका हक़ दिलाये जाने के लिए पर्सनल ला की हिमायत करते हैं |
आले हसन खां