(अंतराष्ट्रीय उर्दू फ़ोरम इन्ह्माक पर मेरा मज़दूर दिवस पर आज विशेष माइक्रो फ़िक्शन (लघु कथा) शीर्षक “बेटा” का हिंदी रूपांतरण)
मैं जब कभी रिक्शा की सवारी करता था, तो अपनी जेब में रेज़गारी भर लेता था । ये मेरी आदत थी । और रिक्शा वाले के जो भाग्य में होता उसे बिना देखे दे देता । आज भी अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला और मुठ्ठी भर रेज़गारी निकाल कर उस रिक्शे वाले लड़के की ओर बढ़ा दी जो मुझे और मेरे एक पुराने मित्र को लेकर मेरी कोठी से बाज़ार लाया था । जिसे लेने से उसने अपना झुका हुआ सर नकारात्मकता में हिलाते हुए अस्वीकार कर दिया, तो मुझे अधिक अचम्भा हुआ ।
“इसे लेकर देखो तो सही, ये तुम्हारे किराये से कम हों तो मैं और दे दूंगा ।” मेरे इतना कहने पर उसने उत्तर दिया “ नहीं साहब ! मुझे आप से पैसे नहीं लेना है।”
“क्यूँ?” मैं ने आश्चर्य पूर्वक प्रश्न क्या और मेरे मित्र ने हम दोनों के मध्य होने वाली वार्ता की ओर आकर्षित होते हुए 100 का एक नोट निकाल कर उसकी ओर बढ़ाते हुए क्रोधित होकर कहा “ ठीक है जितने पैसे तेरे बनते हैं इसमें से काट ले ।”
उसने नोट की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा और बोला “ जी नहीं मुझे नहीं लेना है ।” ये सुनकर मेरा मित्र आश्चर्य से मेरा मुंह देखने लगा ।
“ बस साहब मुझे आप से नहीं लेना है ।” वह लगातार सर झुकाये हुये मुझसे संबोधित था । इसलिए मैं ने अत्यंत विनम्रता के साथ रिक्शा से उतरते हुए जिज्ञासावश पूछा,“ ऐसी क्या बात है बेटा! तुम एक ग़रीब मज़दूर हो और अपनी मज़दूरी के पैसे मुझ से नहीं लेना चाहते ।”
“ साहब ! इस शहर में मैं एक माह से रिक्शा चला रहा हूँ, मुझे किसी सवारी ने आज तक बेटा नहीं कहा, आपने रिक्शा में बैठते ही कहा बेटा बाज़ार तक ले चलो ।” कहते हुए वह फफक पडा।
लेखक – आले हसन खां (रहबर) क़ायमगंज, भारत।