नादान की दोस्ती (लघु कथा)

“बच्चो! आज तुम लोगों की छुट्टी ।” अचानक मौलवी साहब ने कहा तो सब शार्गिद चौंक पड़े, किन्तु मल्लू ने जिज्ञासावश पूछा “ मौली साब! आज छुट्टी क्यूं करदी ?” “अरे!आज शाम को मुशायरा है तुम सब सुनने चौक में आ जाना और जब मैं शेर पढ़ूं तो वाह! वाह!! भी करना।”

दूसरे दिन मौलवी साहब ने मल्लू को पकड़ा, “अबे मलाऊन! तुझसे इतनी वाह! वाह!! करने के लिए किसने कहा था….एक तो तू ठीक मेरे सामने बैठ गया…..ऊपर से इतनी वाह वाह की, कि शेर पढ़ना ही मुश्किल हो गया….कमबख़्त मेरे पढ़ने से पहले ही वाह वाह शुरू कर देता… तूने तो मुझे परेशान कर दिया।”

आज जब भी मैं फ़ेस बुक पर किसी की मृत्यु के समाचार के साथ ही सौकड़ों लाइक देखता हूं तो मुझे मल्लू जैसे नादान दोस्त की बहुत याद आती है ।

– आले हसन खां (रहबर) क़ायमगंज, भारत।

 

جہیز

مختصر افسانہ۔ “جہیز”

ایک ویران بستی کے ایک کھنڈر میں دو اُللو بیٹھے باتیں کر رہے تھے ۔ دونوں نے کچھ عرصہ پہلے اپنے بچّوں کا رشتہ طے کیا تھا لیکن جہیز کا مسلۂ ابھی طے ہونا باقی تھا ۔ لڑکے کے والد نے لڑکی کے والد سے کہا” جہیزکا معملہ بھی شادی سے پہلے طے ہو جانا میں سمجھتا ہوں ہم لوگوں کے درمیان رشتہ مضبوط رکھنے کے لیۓ ضروری ہے شادی کے وقت موالی لوگوں کی طرح ہم جیسے شریف سمجھدار لوگوں میں جھگڑا ہو وہ مجھے اچّھا نہی لگتا ہے۔”

اس پر لڑکی کے والد نے پوچھا”آپکوآخر کو کتنا جہیز چاہیۓ؟ مجھے صاف صاف بتا دیجیۓ۔”

اس پر پہلا اُللو بڑےسنجیدہ لہجے میں بولا”ذیادہ نہی بس دس ویران گاؤں۔”

یہ سنکر دوسرا اُللو بڑے زور سے ہنسا اوربولا”بس دس ویران گاؤں!”

“کیازیادہ ہیں؟”پہلا اُللو گھبرا گیا۔

“نہیں میرے پیارے بھائ! آپ نے تو بہت کم مانگا ہے دعا دو انسانی معاشرے کی فرقعپرست طاقتوں کو میں دس گاؤں ہی نہی ایسے سو ویران شہر تمہیں جہیز میں دے سکتا ہوں۔”

 

آل حسن خاں قاںٔم گنج انڈیا۔

दहेज़ (लघु कथा)

एक वीरान बस्ती के एक खंण्डहर में दो उल्लू बैठे बातें कर रहे थे। दोनों ने कुछ समय पहले अपने बच्चों का रिश्ता तय किया था किन्तु दहेज़ का मसला अभी तय होना शेष था।

लड़के के पिता ने लड़की के पिता से कहा, “दहेज़ का मामला भी विवाह से पूर्व तय हो जाना मैं समझता हूं हम लोंगों के मध्य रिश्ता मज़बूत रखने के लिए आवशयक है विवाह के समय मवाली लोगों की तरह हम जैसे समझदार और शरीफ़ लोगों में झगड़ा हो वह मुझे अच्छा नहीं लगता है ।”

इस पर लड़की के पिता ने पूछा, “आपको आखिर कितना दहेज़ चाहिए? मुझे अभी स्पष्ट बता दीजिये ।”

इस पर पहला उल्लू बड़े गंभीरस्वर में बोला,“अधिक नहीं बस दस वीरान गांव ।”

यह सुनकर दूसरा उल्लू बहुत ज़ोर से हंसा और बोला,“बस दस गांव!”

“क्या अधिक हैं?” पहला उल्लू कुछ घबरा गया।

“नहीं मेरे प्यारे भाई! आपने तो बहुत कम मांगा है दुआ दो मानव समाज की संप्रदायिक शक्तियों को मैं दस वीरान गांव ही नहीं ऐसे सौ वीरान शहर तुम्हें दहेज़ में दे सकता हूं ।”

– आले हसन खां (रहबर) क़ायमगंज, भारत।

 

आप सबको नया साल मुबारक हो

अलविदा कहते हैं हम दो हज़ार चौदह तुझे,
और स्वागत कह रहे हैं दो हज़ार पंद्राह तुझे।

लेके आजा ज़िंदगी में तू भी अब ख़ुशियां हज़ार,
पिछले वर्षों से भी अच्छी अबके आ जाये बहार।

-आले हसन खां (रहबर) क़ायमगंज, भारत ।

 

दिल के ज़ख़्मों को (ग़ज़ल)

दिल के ज़ख़्मों को दिखाया नहीं जा सकता,
प्यार के लम्हों को भुलाया नहीं जा सकता।

इश्क़ में हमने क्या खोया और क्या पाया है,
ये एहसास हमेशा तो कराया नहीं जा सकता।

खेलकर प्यार भरा दिल तोड़ दिया हो जिसने,
उसको वादों की याद दिलाया नहीं जा सकता।

यार! मत पूछो वह क्या कहते हैं अब लोगों से,
तुमको अब और हमसे रुलाया नहीं जा सकता।

हमने हर बात बताई तुम्हे तो “रहबर” फिर भी,
प्यार कैसे करें ये तो सिखाया नहीं जा सकता।

– आले हसन खां (रहबर) क़ायमगंज, भारत।

 

मुक्तक

(प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका “प्रयास” अक्टूबर २०१४)

जग में टिक नहीं पाया कोई मानव पौरष के आगे,
किन्तु ऋषी,मुनि,सुर,असुर सब नारी शक्ति से हारे|
बुद्धि,विवेक, साथ नहीं देते ज्ञान तंतु फिरे जागे सोये,
तिरछी नैन कटारी आगे, बरछे-भाले डर कर भागे|

आले हसन खां (रहबर) कायमगंज, भारत |

 

तू मेरे लिये इतना (ग़ज़ल)

तू मेरे लिये इतना परेशान सा क्यूं है,
गर तुझमें बसा हूं तो मुझे ढूंढता क्यूं है।

इंसान से जब तू नहीं कर सकता मुहब्बत,
फिर मस्जिदो मन्दिर में मुझे पूजता क्यूं है।

दुनिया को बनाकर जब दे दिया तुझको,
उस पर भी न जाने तू रूठता क्यूं है ।

मैंने तो बनाया था एक इंसान तुझे रहबर,
औरत की तू असमत को फिर लूटता क्यूं है।

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

नारी शोषण में मर्दों का समझौता

(सैरबीन १- १५ सितम्बर १९९१ राष्ट्रीय चर्चा का हिंदी पाक्षिक अखबार के पेज दृष्टिकोण में प्रकाशित लेख)

आखिर कार करोड़ों हिंदुस्तानियों के बलिदान के बाद भारत आज़ाद हुआ और नागरिकों ने आज़ादी में साँस ली | हर पुरुष और स्त्री ने अहसास किया कि अब ज़ुल्म और ज्यादिती के दिन गुजर गये अब हमारे अधिकार हमें मिलने से कोई नहीं रोक सकता है | अब शोषण से हमें निजात मिल गई है, लेकिन हमें यह नहीं मालूम है कि हम अभी भी मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुये हैं | शायद यही कारण है कि भारत में पुरुष जहाँ चाहता है स्त्री पर ज़ुल्म और ज्यादती करता है और अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिये कानूनों का संरक्षण प्राप्त कर लेता है, जबकि सामाजिक एवं राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर स्त्री को पुरुषों के समान अधिकार दिलाये जाने की वकालत की जाती है लेकिन यही पुरुष क़ानून को बनाते समय स्त्री को कितना अपने समान अधिकार देता है इसके दृष्टांत आपको समय समय पर मिलते रहते हैं | भारत में यूं तो तरह तरह के झगड़े हैं अलगाववाद अपनी चरम सीमा पर है कहीं क्षेत्रवाद, जातिवाद और तो कहीं संप्रदायवाद को लेकर लोग बटे हुये हैं और अपना अपना गिरोह बनाये हुये हैं | इसके पक्ष और विपक्ष में आवाज़ें उठाते हैं आंदोलन चलाते हैं लेकिन जहाँ स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिलाने की बात आती है वहाँ उस मुद्दे पर सभी पुरुष एक हो जाते हैं और सम्प्रदायवाद जैसा ज़हरीला झगड़ा भी भूल जाते हैं | क्योंकि कुछ बिंदु ऐसे भी हैं जिनपर पुरुष स्त्री के अधिकारों का शोषण बड़ी चालाकी से कर रहा है | जैसे कृषि भूमि में विरासत पाना | पुरुष वर्ग में पुत्र के वारिस होने पर स्त्री वर्ग की चाहे वह पत्नी हो अथवा पुत्री विरासत से वंचित कर दिया जाता है |

भारत की आज़ादी के बाद यहाँ के किसानों को एक बहुत बड़ी लानत से छुटकारा दिलाया गया है वह है ज़मींदारी प्रथा | इस ज़मींदारी पृथा के टूटने से ग़रीब किसानों को उनकी वह भूमि दे दी गई जिस पर वह खेती करते थे | यह एक हकीक़त है कि ज़मींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम को बनाकर भारत के राजनीतिज्ञों ने एक बहुत बड़ा काम किया है | इससे ज़मीन पर खेती करने वाले कृषकों का शोषण रुका है | उनको भूमि पर मालिकाना अधिकार प्राप्त हुये | भूमि सुधार के लिये भी क़ानून पुरुषों को लाभ पहुँचाने के लिए ही बनाये गये | आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे क़ानून के विरुद्ध न तो शाहबानो केस के हिमायती ही बोले, जिन्होंने एक मुसलमान स्त्री को तलाक़ के बाद भी मुस्लिम पर्सनल ला के विरुद्ध नान नफ़क़ा दिलाने की पुरज़ोर कोशिश की और न ही कभी आवज़ उठायी | क्योंकि इसमें दोनों ही समुदाय के पुरुषों का नुख्सान था इसलिये सभी समुदाय के पुरुष इस क़ानून के खिलाफ़ खामोश हैं और स्त्री जोकि एक अबला है अपने अधिकारों के लिये रोती, बिलखती और मजबूर होकर रह जाती है | आइये देखें कि वह कौन सा बिंदु है जहाँ पर हिन्दुस्तान के सभी समुदाय के पुरुष एक हैं |

उ०प्र० ज़मींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम में सभी समुदाय के पुरुषों के लिये समान रूप से वारिसान का वर्गीकरण किया गया है | जिससे पुरुषों को स्त्रीयों पर अहमियत दी गयी है और स्त्रीयों का अधिकार केवल स्त्री होने के नाते कम किया गया है | यदि किसी कृषक पुरुष का देहांत हो जाता है तो उसके पुत्र आदि को विरासत मिलती है और पुत्र के अथवा उसके पुत्र के पुत्र आदि के जीवत न होने पर पत्नी को कृषि भूमि में विरासत मिलती है और पत्नी के न होने पर पुत्री को विरासत मिलती है अर्थात पुत्र अथवा पुत्र आदि के जीवनकाल में पत्नी अथवा पुत्री को कृषि भूमि में कोई हिस्सा नहीं मिलता है | चाहे मृतक की पत्नी और उसकी पुत्री को वह एक समय की रोटी भी न दें | यह भी अक्सर देखा गया है कि पिता के मरने के बाद पुत्र अथवा उसके पुत्र के पुत्र आदि को सम्पूर्ण कृषि मिल जाने के बाद उसकी (मृतक) की पत्नी और पुत्रियां लावारिसों जैसी ज़िंदगियाँ गुज़ारती हैं और दाने दाने को मोहताज रहती हैं | अपने ही घर में अपने बेटे और भाईयों के परिवार की गुलामी करती हैं और इस तरह पुरुषों की दया की मोहताज रहती हैं | कभी कभी कोई पिता अपने पुत्रों के साथ अपनी पत्नी एवं पुत्रियों को भी हिस्सा वसीयत के व्दारा दे देता है तो उसकी मृत्यु के बाद यही पुरुष अपनी माँ और बहनों को अदालत में घसीटते हैं और उनको मुकद्दमें बाज़ी में उलझाकर उनसे उनका अधिकार छीन लेते हैं |

शाहबानो के वाद में उसके पति से तलाक़ के बाद रोटी कपड़ा दिलाने के लिए पूरे भारत में बहसें छिड़ी, आंदोलन हुये और आज तक उसकी मिसालें बाबरी मस्जिद और राम जन्म भूमि के मामले में भी दी जाती हैं कि अदालत का फ़ैसला हम इसलिये नहीं मानेंगे क्योंकि एक समुदाय के लोगों ने शाहबानो के वाद में अदालत का फ़ैसले को मानने से इनकार किया था | नारी के इन समर्थकों से कोई यह तो पूछे कि जब कृषि भूमि में पत्नी और पुत्री के जीवित रहते हुये पूरी की पूरी भूमि पुत्र की हैसियत से हड़प कर जाते हो तब तुम्हारी नारी के प्रति श्रद्धा कहाँ चली जाती है | तब तुम क्यों नहीं कहते कि यह क़ानून ग़लत है और हम अपनी माँ और बहनों को भी अपने बराबर हिस्सा देंगे | क्योंकि उन्होंने ने भी हमारे पिता के जीवन में इस भूमि को अपने खून पसीने से सींचा है| केवल नारी होने के कारण उसको उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये | तब न उन्हें अपनी माँ शाहबानो में और न ही अपनी बहन शाहबानो में नज़र आती है | क्योंकि यह लोग दूसरे सम्प्रदाय की नारी अधिकारों के लिए अपने दिल में दर्द रखते हैं, अपनी माँ अथवा बहनो के अधिकारों के लिए नहीं | क्योंकि अपनी माँ बहनों को उनका अधिकार देने की बात तो एक बेवकूफी के सिवाय कुछ भी नहीं है | इससे तो उनके हितों को क्षति पहुंचेगी |

ठीक उसी प्रकार शाहबानो के वाद में मुस्लिम पर्सनल ला की हिमायत करने वाले भी पर्सनल ला की हिमायत से अपना हाथ खींच लेते हैं | क्योंकि अगर पर्सनल ला से सच्ची आस्था दिखाई गई तो उससे मर्द के हकों को नुक्सान पहुंचेगा | इसलिये इस क़ानून के खिलाफ़ कोई आवाज़ ही नहीं उठाता बल्कि बड़ी खुशी के साथ और बड़े अधिकार पूर्ण ढंग से अदालतों में कार्यवाहियाँ करके अपनी माँ और बहनों का हक़ मारते हैं और अगर कोई उनकी माँ, बहनों के हक़ दिलाने के लिये पर्सनल ला की याद दिलाता है कि इसके अनुसार तो माँ को 1/8 और बहनों को आप से आधा मिलने का क़ानून है तो कहते हैं कि ऐसा क़ानून सरकार का नहीं है | मतलब यह कि उन्हें भी मुस्लिम पर्सनल ला की याद शाहबानो के तलाक़ के बाद नान नफ्का न दिलाये जाने के लिये तो आती है और अपने पर्सनल ला में किसी किस्म की मदाखलत बर्दाश्त न करने का दिखावा करते हैं | जब इसी पर्सनल ला का कृषि भूमि की विरासत में गला घोंटा जाता है तो कहते हैं कि यह तो सरकारी क़ानून है हम क्या कर सकते हैं | अगर यह कहा जाता है कि सरकार ने क़ानून बनाकर आपकी माँ, बहनों को हक़ से महरूम किया है तो आप खुद पर्सनल ला के मुताबिक़ उनको उनका हक़ बैनामा, हिबनमा आदि से दे दें | उस वक्त उन्हें न तो पर्सनल ला की हिमायत की याद आती है और न ही खुदा का खौफ़ | अक्सर पिता भी अपनी बीवी और बेटी के हकूक़ को खुद ही नहीं देना चाहता है | क्योंकि अगर वह भी खुदा से डरे तो अपनी ज़िन्दगी में ही अपने तमाम वारिसान को मुस्लिम पर्सनल ला के मुताबिक़ हिस्सा देकर वसीयत कर सकता है और बीवी और बेटी के हकूक़ के हिफाज़त कर सकता है | लेकिन वह अगर ऐसा कर भी देता है तो उसके बेटे अपनी माँ, बहनों को अदालतों में घसीटते हैं और सरकारी कानूनों के मुस्लिम पर्सनल ला के मुकाबले दुहाई देते हैं | क्योंकि कभी पर्सनल ला में तो कभी सरकारी कानूनों में अपने अधिकारों का संरक्षण करते हैं | जिसका मैं लगभग १८ वर्षों से वकालत में स्वयं मुशाहिदा कर रहा हूँ | सरकारी क़ानून से देना पड़े तो पर्सनल ला याद आता है | और इस तरह सभी समुदाय के पुरुष नारी के आधिकारों का हनन कर रहे हैं | और नारी को न तो पूर्ण स्वतंत्रता ही प्रदान करते हैं और न ही अपनी गुलामी से आज़ाद होने देते हैं प्रत्येक समुदाय का पुरुष ऐसे मामलों में आपस में एक खामोश समझौता किये हुये है |

इसलिये नारी को चाहिये कि अपने पुत्रों और भाईयों के जीवन काल में ही अपने बराबर के अधिकार के लिए संघर्ष करें और कृषि भूमि में भी बराबर का हिस्सा प्राप्त करने के लिये सरकार पर दबाव डाले फिर देखते हैं कि नारी को उसका अधिकार दिलाने वाले शाहबानो की तरह उनका किस हद तक समर्थन करते हैं और मुस्लिम पर्सनल ला के हिमायती कितना नारी को उसका हक़ दिलाये जाने के लिए पर्सनल ला की हिमायत करते हैं |

आले हसन खां

अदावत के समर को (ग़ज़ल)

अदावत के समर को हम कभी फलने नहीं देते,
हम इंसान हैं कभी इंसानियत मरने नहीं देते ।

हमें पंडित और मौलाना रक़ीबों से नज़र आते,
जो हम हिंदू मुसलमां को कभी मिलने नहीं देते ।

इलेकशन में हमारे घर जो चक्कर लगाते हैं,
वह उसके बाद अपने पास हमें आने नहीं देते ।

अजब माडर्न कपड़े और उस पर चाल मरदाना,
ये कोमल को कभी कोमलांगी होने नहीं देते ।

हमें रहबर हमारे आजकल रहज़न से लगते हैं,
जो मंज़िल तक हमारा क़ाफ़िला जाने नहीं देते ।

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

शाही मेहमान (कहानी)

(प्रकाशित हिंदी कहानी “दैनिक जागरण पुनर्नवा”, ५ जनवरी २००७)

वर्षा ऋतु, नीचे पानी ही पानी, ऊपर कड़ाके की धूप जिसमें एक क्षण भी खडे रह पाना कठिन था किन्तु प्राकृतिक परिधान में एक बूढ़ा जर्जर शरीर खुले आसमान के नीचे उकड़ूं बैठा आने जाने वालों के लिये कौतूहल का विषय बना हुआ था। सभी को इस खराब मौसम में अपने-अपने गंतव्य तक पहुंचने की इतनी जल्दी थी कि किसी को उसका कष्ट जानने अथवा सहायता करने के लिये समय ही नहीं था परन्तु वह अभागा फिर भी बहुत भाग्यशाली था जो कर्मठ युवा नगर मजिस्ट्रेट नगर के जल भराव समस्या का निरीक्षण करते हुए उधर आ नकले और जैसे ही उनकी दृष्टि उस जीवित मानस कंकाल पर पड़ी, उनकी जीप एक झटके के साथ रुक गई। उन्होंने तुरंत अपने अर्दली को भेज कर मालूम करवाया कि वह बूढा ऐसी हालत में फुटपाथ के सहारे पानी भरे रिक्त स्थान में क्यों बैठा है?

सर! यह बूढा यहां पर आज कई दिन से बैठा है। अर्दली नें वापस आकर साहब को बताया ।

क्यों?

यह तो नहीं पूछा सर!

बेवकूफ!..आधी अधूर बात पूछ कर आए।

मैं जाता हूं सर! कहते हुए स्टेनो बाबू शीघ्रता से जीप से उतरे और वहां पर उपस्थित लोगों से जानकारी करके वापस आए, सर! यह बूढा न सुन पाता है और न ही कुछ बोल पाता है.. इसलिए उसके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं हो पाई है.. हां, आस-पास के लोगों से बस इतना मालूम हो सका है कि यह कई दिन से यहां पर है.. सडक से गुजरने वालों में से कुछ दयालु इसको खाने-पीने को कुछ डाल देते हैं..परंतु वह खाता पीता नहीं है ।

क्या चलता फिररता भी नहीं है?

यह तो पूछा नहीं सर! स्टेनो बाबू अपने साहब के प्रश्न पर घबरा गए, सर! अभी जानकारी करके आता हूं।

रहने दीजिये स्टेनो बाबू! नगर मजिस्ट्रेट मुस्कुराए और स्वयं जीप से उतर कर उस बूढ़े के पास गए, तो आस-पास खड़े लोग भी निकट आ गए, जो आपस में खुसर-फुसर करने लगे। नगर मजिस्ट्रेट की दृष्टि उस बूढ़े की ओर और कान भीड़ से आने वाली आवाज़ो की ओर लगे थे।

-परसों इस बूढ़े को दो लड़के यहां पर छोड़ गए थे।

-कौन थे वे लोग… और इस बेचारे को इस हालत में क्यों छोड़ गए?

-इस बूढ़े के नालायक़ बेटे होंगें… और कौन होंगें… अपना पीछा छुड़ाकर भाग गए!

-तुम ठीक कहते हो भाई! एक ने दूसरे से सहमति जताई, यह बात कोई और भी कह रहा था।

-कितने निर्दयी होते हैं ऐसे परिवार वाले, जो समय किसी बुज़ुर्ग की देख रेख का होता है उस समय उसका यूं तिरस्कार कर देना कितना बड़ा पाप है…कितने पापी होते हैं ऐसे लोग!

-पापी!… अरे पापी तो यह स्वयं हैं जो अपने पूर्व जन्म के पाप भुगत रहे हैं।

-कोई उस बूढ़े को पहचानता है? नगर मजिस्ट्रेट साहब ने भीड़ की ओर मुंह उठाकर पूछा, परन्तु किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया, आशचर्य है! आप लोग इस बूढ़े को नहीं पहचानते, परन्तु इसके पूर्व जन्म के पाप जानते हैं। इतना सुनते ही भीड़ को सांप सूंघ गया। भीड़ में छाई ख़ामोशी देख कर वह

फिर बोले, यदि आप इसका अता पता अथवा इसके परिवार वालों के सम्बन्ध में वास्तव में जानते हैं तो कृपया बतायें? इस प्रश्न का भी किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। हां भीड़ में से किसी ने पीछे से आवाज लगाई।
लावारिस है।

लावारिस है… हां! हां! लावारिस है। फिर एक साथ कई स्वर वातावरण में गूंजे, जिसे सुनते ही नगर मजिस्ट्रेट ने अपने स्टेनो को आदेश दिया।

स्टेनो बाबू, फौरन ई. ओ. नगर पालिका परिषद से कहो कि वह अपने कर्मचारियों की सहायता से इस बूढ़े को अभी हमारे सामने उठवाकर अस्पताल में भरती करवाएं… देख रहे हो इसकी कितनी दयनीय हालत है।

परन्तु सर! स्टेनो बाबू ने परेशान होकर अपना सर खुजलाया।

परन्तु क्या?

परन्तु सर! यह तो लावारिस है। स्टेनो बाबू ने डरते-डरते अंतत: अपना वाक्य पूरा किया।

तो क्या हुआ? नगर मजिस्ट्रेट ने बहुत सहज भाव से अपने स्टेनो की ओर ध्यानपूर्वक देख कर पूछा।

सर, इस लावारिस का अस्पताल का ख़र्च कौन उठाएगा? स्टेनो बाबू ने अपनी आशंका प्रकट की।

स्टेनो बाबू!… क्या आपको मालूम नहीं, जिस वस्तु का कोई वारिस नहीं होता है उसकी वारिस और स्वामी सरकार होती है।

यह तो मालूम है सर!

तो फिर इस लावारिस निर्वस्त्र बूढ़े शरीर का वारिस कौन हुआ?

जी सरकार हुई।

और सरकारी सम्पत्ति की देख रेख का उत्तरदायित्व किसका है? बड़े ध्यान से स्टेनो बाबू की ओर निहारते हुए नगर मजिस्ट्रेट ने प्रश्न किया तो स्टेनो बाबू सिटपिटा गए।

सर हमारा!

अब समझे! नगर मजिस्ट्रेट साहब के अधरों पर हल्की मुस्कान दिखायी दी।

जी समझ गया… सब समझ गया। स्टेनो बाबू ने अपना सर हिलाया, मैं अभी ई. ओ. साहब को आपके आदेश की सूचना देता हूं।

फिर देखते ही देखते नगर पालिका परिषद के कर्मचारी आंधी तूफ़ान की भांति आए और उस बूढे को उठा कर चल दिए। अस्पताल में भी उसके आगमन की सूचना पहले ही पहुंच चुकी थी क्योंकि नगर मजिस्ट्रेट का आदेश वहां भी पहुंच गया था और वहां की तैयारियां देखकर ऐसा लगता था जैसे कोई वी.आई. पी. इलाज के लिए तशरीफ लाने वाला हो।
आगे-आगे नगर मजिस्ट्रेट की गाड़ी सायरन बजाती हुई और पीछे-पीछे नगर पालिका परिषद की एम्बुलेंस उस मरीज़ को लेकर अस्पताल परिसर में दाख़िल हुई, तो ख़ूबसूरत नर्सों का झुंड उस गंदे जर्जर बूढ़े शरीर में चलती श्वांस की अगवानी के लिये आगे बढ़ा, जिससे एक क्षण के लिए ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी राजा के स्वागत के लिये ढेरों चंद्रमुखी सेविकायें आगे बढ़ आई हों।

कुछ समय पश्चात जब अस्पताल के स्टाफ ने उसको नहला धुला कर एक साफ सुथरे बिस्तर पर सफ़ेद कपड़े पहना कर लिटाया, तो वह शाही मेहमान से कम नज़र नहीं आ रहा था जब उसको आवश्यक दवायें ग्लूकोज़ के साथ चढाई गयीं तो बदतर दिखने वाला वही बूढ़ा अब अच्छा ख़ासा बुज़ुर्ग इंसान दिखने लगा था।

सायं को जब नगर मजिस्ट्रेट अपने मरीज़ की ख़बर लेने दोबारा अस्पताल भ्रमण करने आए, तो उसके पास बैठ कर बड़े प्यार से उसका हाल चाल पूछने लगे। उन्होंने बहुत प्रयास किया कि उसके अथवा उसके परिवार के बारे में कोई जानकारी मिल जाए परन्तु वह तो सदैव के लिए अपने बोलने की शक्ति खो चुका था इसलिए उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर देने मे असमर्थ था। वह तो बस उनकी ओर एकटक देखे जा रहा था और अपनी आंखों से लगातार आंसू बहा रहा था। संभवत: यह उसकी पीड़ा थी जो उसकी आखों से आंसू बन कर बाहर आ रही थी अथवा कृतज्ञता के आंसू, जो नगर मजिस्ट्रेट का आभार प्रकट कर रहे थे।

दूसरे दिन जब नगर मजिस्ट्रेट अपने बंगले के बाहर बरामदे में बैठकर ठण्डी हवाओं के साथ गर्म चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहे थे उसी समय चपरासी ने समाचार पत्र मेज़ पर ला कर रख दिया, तो उन्होंने चाय का कप मेज़ पर रख दिया और समाचार पत्र हाथ में उठा लिया। उनकी दृष्टि समाचार पत्र की उस हेडलाइन पर टिक गई जहां लावारिस बूढ़े की देखभाल और अस्पताल पहुंचाने की कल की घटना का विस्तृत विवरण प्रकाशित हुआ था और लिखा था काश हमारे देश के सभी अधिकारी अपने कर्तव्य एवं दायित्व का इसी प्रकार निष्ठापूर्वक और पूर्ण लगन से निर्वहन करें जैसा कि हमारे नगर के नगर मजिस्ट्रेट उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं तो आम लोगों की दिन प्रतिदिन बढती हुई समस्याओं पर एकदम अंकुश लगाया जा सकता है और ठीक उसी के नीचे दूसरा समाचार छपा था जिसमें लिखा था कि शासन द्वारा नगर मजिस्ट्रेट का स्थानान्तरण दो माह के अन्दर ही दूसरे ज़िले कि लिए तात्कालिक प्रभाव से कर दिया गया है।

यह लीजिए सर! कहते हुए चपरासी ने उनकी ओर एक लिफ़ाफ़ा बढ़ाया। चपरासी के हाथ से लिफ़ाफ़ा लेकर नगर मजिस्ट्रेट ने उसे खोला और अपने ट्रान्सफर आदेश को पढ़ कर आहिस्ता से मेज़ पर रख दिया फ़िर आंखें बंद करके कुछ सोचने लगे।

उसके दूसरे दिन प्रातः दो गाडियां नगर से एक ही समय में निकलीं। एक टैक्सी सरकारी बंगले से, जिसमें नगर मजिस्ट्रेट सपरिवार सवार थे और दूसरी नगर पालिका परिषद की कचरा ढोने वाली गाड़ी अस्पताल परिसर से, जिसमे उसी लावारिस बूढ़े का शव पड़ा था जो दो दिन से शाही मेहमान बनकर अस्पताल वालों का सरदर्द बना हुआ था।

आले हसन ख़ाँ (रहबर)