तौला बाबा (कहानी)

(प्रकाशित उर्दू कहानी “अखबार नौ”, नई दिल्ली, फ़रवरी 1996)

मेरे स्कूल में क़दम रखते ही सईद ने पुकारा, “लो! एक और महारथी पधार रहें हें |”

“में तो प्रत्येक दिन हाज़िरी लगा जाता हूँ ……… बात करो गुप्ता जी की, जो माह में बस एक बार ही मुंह चमकाते हैं” यह कहकर मैं बैठ गया |

“बाजपेई जी ! मैं क्या सईद हूँ जिसको पढ़ाने के अतरिक्त कोई काम नहीं है | इकलौता दामाद हूँ, अपने ससुर का पूरा बिज़निस संभालता हूँ | मेरे पास इस सड़ी संस्था के लिये समय ही कहाँ है?”

“तो छोड़ क्यों नहीं देते गुप्ता जी ?”

“छोड़ तो दूँ सईद भाई ! तुम लोगों से मोहब्बत है इसलिये चला आता हूँ |”

“एकदम झूठ वेतन मनी आर्डर से पहुंच जाए तो वर्ष भर नही दिखाई दोगे |”

“ऐ यादव ! पहले अपने गिरेबान में झांको , मेरी तो मज़बूरी है परन्तु तुम गांव में रहकर भी नही आते हो |”

“मैं भी मजबूर हूँ, श्रीमानजी ! मेरी खेती है, जानवर हैं और मुकद्दमों के लिये कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं फिर भी जो समय बचता है मैं तुम से कहीं अधिक उपस्थित होता हूँ |”

“छोड़ो यारो ! हम सब एक ही थैले के चट्टे बट्टे हैं कोई एक दिन तो कोई चार दिन आता है|” वातावरण गर्म होते हुए देख मैंने बात हंसी में उड़ा दी “अपना सईद तो हम सब की डयूटी पूरी कर देता है |”

“तभी तो हेड मास्टर का चार्ज पाया” श्रीवास्तव मुस्कुराया |

“यह तो ज़्यादती है” कठेरिया ने शिकायत की,” चांस मेरा था दे दिया इन्हें !”

“भैय्या तुम्हें कैसे मिलता ?” श्रीवास्तव ने आश्चर्य से पूछा, “तुम तो मुझसे क्या यादव तक से जूनियर हो, हाँ ! अगर बाजपेई जी या गुप्ता जी शिकायत करते तो ठीक है दोनों सईद से सीनियर हैं |”

“मैं शिड्यूलड कास्ट कंडीडेट हूँ |”

“अच्छा तो प्रमोशन में भी रिज़र्वेशन चाहिये|”

“गुप्ता जी ने व्यंग किया,” पढ़ना आये न पढ़ाना …….फिर भी नौकरी मिल गई ये क्या कम बात है |”

“रिज़र्वेशन हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है अधिकार |”

“अधिकार नही हम सर्वणों की दया कहो, दया”

“श्रीवास्तव भी चढ़ लिये तो मैंने सांत्वना दी,” अरे कठेरिया ! काहे को दुंद मचाये हो | तुम दोनों एक ही हो, तुम शिड्यूलड कास्ट तो सईद अल्प संख्यक ”

“वाह बाजपेई जी ! अल्प संख्यक मैं हूँ या तुम सब ”

“हम! सबने आश्चर्य से पुछा ”

“बहु-संख्यक का ढोंग करते हो, जबकि तुम सबलोग अलग अलग अल्प संख्यक हो |”

“वह कैसे ?” कठेरिया हैरत में पड़ गया |

“अरे भइय्या ! सीधी सी बात है जब सब एक हो फिर ये हरिजन सर्वण, बैकवर्ड, फ़ारवर्ड क्या है |”

“कौन कहता है हम एक नहीं हैं ?”

“यार श्रीवास्तव ! एक हो तो मंडल कमीशन से क्यूँ भड़कते हो ?

“वह इसलिये मियां ! कि इससे समाज बट जाएगा |”

“वह तो हमेशा से बटा है |”

“जोशीली बहस का विषय मंडल बना तो मैंने झट कमंडल कि कमंद फेंकी ,” नहीं हम कभी नही बटे हैं, हम सब हिंदू हैं, विश्वास न हो तो तुम खुद ही पूछ लो |”

“क्या ?”

“ये ही कि राम मंदिर हम सब का है या नहीं ?”

“अरे पंडित जी ! वह तो धर्म का मामला है, मंदिर तो हम सबका है |” कठेरिया चहका शेष ने गर्दन हिलाई |

“फिर तो हरिजन भी उसका पुजारी बन सकेगा ?” सईद ने एक और तीर छोड़ा,  तो मैं घबरा गया किन्तु भला हो गुप्ता जी का समय पर मोर्चा संभाल लिया |

“वह पुजारी बने या न बने, तुम अपनी कहो, हम तुम्हें यहाँ नहीं रहने देंगे |”

“हम तो यहीं रहेंगे, ऊपर न सही तो इस ज़मीन के नीचे लेकिन फ़िक्र करो अपनी, चिता कि सब राख हवा में उड़ जायेगी |”

“उड़ नहीं जायेगी मियां ! यह कहो पूरे ब्रह्मांड में छा जायेगी |”

गुप्ता जी और सईद की गर्मा-गरम बहस सुनते ही सब हसने लगे किन्तु गुप्ता जी ने खिसियाकर फिर सीधा वार किया |

“खैर मियां ! तुम कहीं भी रहो, किन्तु मंदिर तो हम वहीं बनायेंगे |”

“इतना आसान नहीं है………….वह जगह मस्जिद की है और हमेशा मस्जिद की रहेगी.. ………..हाँ अगर अदालत मस्जिद से पहले वहाँ मंदिर बताती है तो और बात है |”

“न्यायालय क्या निर्णय करेगा, यह हमारी भावनाओं का प्रशन है |”

“गुप्ता जी ! भावनायें हमारी भी हैं |”

“तुम्हारी भावनायें क्या हमारे बराबर हैं |”

“क्या भावनाओं में भी अंतर होता है ?”

“हाँ मियां होता है !”

और इससे पहले कि भावनायें रंग लातीं चपरासी टपक पड़ा , ”साहब बच्चे भाग गए |”

“कहाँ ?” सईद बेचैन हो गया |

“तौला बाबा को देखने |”

“जो सुबह से तिराहे वाले पीपल के नीचे आसन जमाए बैठे हैं ?”

“जी यादव जी !”

“चलो ! उन्ही से निर्णय कराते हैं………..सुना है बहुत पहुंचे हुए हैं |” कठेरिया ने प्रस्ताव रखा और सब मान गए, थोड़ा हिला हवाला करके सईद भी चल दिया |”

उलझे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, जीर्ण शिर्ण शरीर, मैले कुचैले, चुंधियाई आँखों वाले बाबा के दर्शन कर मैंने सोचा, आजकल रामजानकी रथ, गाये की पूंछ, राम ज्योति, एक रुपया एक ईंट, चरण-पादुका पूजन, रामकथा, राम पताका, राम प्रसाद और राम रंग के अभियानों से आदमी कितना अंध-विश्वासी हो गया है कि पागलों को भी साधू, संत, महात्मा अथवा पीर, फ़कीर समझने लगा है |”

उत्तर की प्रतीक्षा में तपती दोपहर ढलने लगी और जब भूख प्यास सताने लगी तो हमने एक दूसरे को खिसकने का इशारा किया, तभी गुप्ता जी ने अंतिम बार बड़ी श्रद्धा और विनम्रता से फिर अपना प्रशन दोहराया,” महाराज, बताइये न ! किसकी भावनायें अधिक हैं ?”

“बराबर, यह देखो !´कहकर बाबा ने अपना हाथ फूल मालाओं के ढेर से ऊपर उठाया, जिसमें एक तराज़ू लटक रही थी, जिसकी डंडी टहनी की और पलड़े मिटटी की प्यालियों के थे |

तौला बाबा का मौन टूटते ही गुप्ता जी पागलों की भांति चीखने लगे, ”पागल है, यह तो भावनाओं को भी तराज़ू में तौलता है, क्या हमारे देश के नेता पागल हैं जो भावनाओं का अंतर भली भांति जानते हैं ?”

सईद, यादव, कठेरिया और श्रीवास्तव हैरान परेशान उसे समझा रहे थे और मैं किंकर्तव्यमूढ़ खड़ा सोच रहा था “हे भगवान, वास्तव में पागल कौन है वे लोग अथवा यह तौला बाबा ?”

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

सरकारी काम होते हैं (हास्य ब्यंग)

सरकारी काम होते हैं डंके की चोब पर ।
रिश्वत भी अब तो लेते हैं  डंके की चोब पर ।।

बिन पैसे के रिपोर्ट न देता है लेखपाल ।
ख़ुद को समझता वो है गाँव का राजपाल ।।

क़ानूनगो भी रखता ऊँचा मुक़ाम है ।
जबतक न रक्खो हाथ पर करता न काम है ।।

और तहसीलदार अपना ह्क़ छोड़ता नही ।
उसपर ज़िले का हाकिम कुछ बोलता नहीं ।।

सब काम यहाँ होते हैं  डंके की चोब पर ।
अरे! ज़िन्दा को मुर्दा लिखते हैं  डंके की चोब पर ।।

सरकारी काम होते हैं डंके की चोब पर ।
रिश्वत भी अब तो लेते हैं  डंके की चोब पर ।।

तहसील के दिवस पर आते यहाँ सभी ।
डी.एम. कभी कभी तो एस. पी. कभी ।।

आते हैं सी.डि.ओ. भी और ए.डि.एम. जी ।
फिर भी शिकायतों में होती नहीं कमी ।।

तहसील के दिवस की  बातें बड़ी बड़ी ।
अरे! जनता दिवस शिकायतें आज तक पड़ीं ।।

जनता तो रोज़ लुटती है  डंके की चोब पर ।
फिर थाने जाके कुटती है  डंके की चोब पर

सरकारी काम होते हैं डंके की चोब पर ।
रिश्वत भी अब तो लेते हैं  डंके की चोब पर ।।

है अस्पताल अपना कुछ पाक साफ सा ।
जिसमें दवाइयों का मिलता नहीं पता ।।

इंजेक्शन रेबीज़ के मिलते हैं अब कहाँ ।
और दल्ले हर विभाग में काटें यहाँ वहाँ ।।

मजबूर ज़िन्दगी की जो अस्मत से खेलता ।
वोह डाक्टर है आज का कलजुगी देवता ।।

अरे! अंगों से मसखरी भी डंके की चोब पर ।
और अंगों की तस्करी भी डंके की चोब पर ।।

सरकारी काम होते हैं डंके की चोब पर ।
रिश्वत भी अब तो लेते हैं  डंके की चोब पर ।।

भारत को जो दिखाए कोई दिशा नई ।
रहबर हमें तो ऐसा दिखता नहीं कोई ।।

हैं बशऊर जो भी वो भी डरे हुए ।
अपनी मुसीबतों में वो भी घिरे हुए ।।

इन्साफ का तराज़ू रक्खा है जहाँ पर ।
रिश्वत का घुन तो देखो पहुँचा है वहाँ पर ।।

अरे! मुल्ज़िम भी छूट जाते हैं डंके की चोब पर ।
और मुढ़भेड़ें फर्ज़ी  होती हैं डंके की चोब पर ।

सरकारी काम होते हैं डंके की चोब पर ।
रिश्वत भी अब तो लेते हैं  डंके की चोब पर ।।

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

आओ सहेलियो (गीत)

आओ सहेलियो आओ सहेलियो ,
मिलकर के आज नाचो गाओ सहेलियो ||

भाई को आज हम तो उबटन लगायेंगे,
चंदन से उसके तन में खुशबू बसायेंगे,
प्यारा उसको हमसब दूल्हा बनाएंगे |||

आओ सहेलियो…………….,
आओ सहेलियो……………||

मम्मी का है दुलारा पापा को प्यारा है,
बहनों का अपनी वह तो आँखों का तारा है ,
सारे जहां से अच्छा भाई हमारा है |||

आओ सहेलियो……………….,
आओ सहेलियो……………….||

किरणों के रथ पे उसको जब हम बिठायेंगे,
अर्धांगिनी को लेने तब घर से जायेंगे,
धरती गगन भी उस पल मल्हार गायेंगे |||

आओ सहेलियो आओ सहेलियो
मिलकर के आज नाचो गाओ सहेलियो

भाभी साथ लेकर जब भी वो आयेंगे,
प्रतीक्षा में अपनी बह्नों को पायेंगे,
फिर नेग देके अपना दामन छुडाएंगे |||

आओ सहेलियो आओ सहेलियो,
मिलकर के आज नाचो गाओ सहेलियो ||

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

तू हमारी बहन और (गीत)

तू हमारी बहन और सहेली भी है ,
एक अनबूझ अदभुत पहेली भी है |

भोली चितवन में तेरी एक बांकपन,
चंदन काया में रखती है तू साफ़ मन |
और अधरों पे तेरी जो मुस्कान है ,
सुंदर मुखड़े की तेरी वो पहचान है ||

तू हमारी बहन और सहेली भी है ,
एक अनबूझ अदभुत पहेली भी है |

हाथों पैरों में मेंहदी लगाकर तुझे,
प्यारी दुल्हन बनादें सजाकर तुझे,
चाँद तारे लगा दें  तेरी मांग में ,
भावी सपने सजादें तेरी आँख में ,

तू हमारी बहन और सहेली भी है
एक अनबूझ अदभुत पहेली भी है |

आज कैसी लगी है ये देखो लगन,
झूमती है धरा और गाता गगन,
वाटिका का हमारी तू है एक सुमन,
तुझसे बिछड़े तो होती है दिल को चुभन,

तू हमारी बहन और सहेली भी है ,
एक अनबूझ अदभुत पहेली भी है |

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

फिर देखो आज आई है (नज़्म)

हर भारती के दिल में जिसके लिए है प्यार |
हर साल जिसका रहता है हम सबको इन्तेज़ार ||
वो आ गई है देखो छब्बीस जनवरी |
कुछ ग़म है उसके दिल में कुछ तो है बेकली ||
ज़ख्मों से चूर दिखती है कश्मीर की कली |
फिर देखो आज आई है छब्बीस जनवरी ||

सजधज के यूँतो आई है छब्बीस जनवरी,
पैरों में जिसके बेड़ियाँ हाथों में हथकड़ी,
और आँखों से लगी है बरसात की झड़ी,
उसपर भी मुस्कुराई है जैसे हो फुलझड़ी,
कुछ बदली बदली आई है छब्बीस जनवरी,
फिर देखो आज आई है छब्बीस जनवरी ||

संसद से मारपीट का अब आता शोर है,
अपराध की सुनामी लहर का न तोड़ है,
है क़त्ल आम बात तो अगवा का ज़ोर है,
रहज़न डकैत कोई है तो कोई चोर है,
कुछ बेज़मीर देश की करते हें मुखबरी,
फिर देखो आज आई है छब्बीस जनवरी ||

हक़ बहनों बेटियों को भी देते नही हें हम,
बहुएँ जलें तो होता नहीं हम को कोई ग़म,
मुल्ज़िम हमें बनाएगा है किसमें इतनी दम;
पापी तो हम सभी हैं कोई नही है कम,
आज़ादी हमने पाई है करने को तस्करी,
फिर देखो आज आई है छब्बीस जनवरी ||

गणतन्त्र की हुकूमत दिखती नही कहीं,
क्या अपने संविधान में कुछ रह गई कमी,
जम्हूरियत का ये गुल ऐसे खिला नहीं,
ये लोकतंत्र हमको यूँ ही मिला नहीं,
कुर्बानियों से पाई है मुश्किल से ये घडी,
फिर देखो आज आई है छब्बीस जनवरी ||

ऐ नौजवानों देश को आगे बढ़ाओ तुम,
बापू के जैसा रहबर अपना बनाओ तुम,
दस्तूरे हिंद सर पर अपने उठाओ तुम,
अस्मत तिरंगे झंडे की अब तो बचाओ तुम,
तोड़ो इन बेड़ियों को खोलो ये हथकड़ी,
फिर देखो आज आई है छब्बीस जनवरी ||

-आले हसन ख़ाँ (रहबर)

 

(प्रकाशित “प्रयास मैगज़ीन”, कनाडा, दिसम्बर २०१४)

Jan26

 

हैवान है वो आदमी (गज़ल)

हैवान है वो आदमी इंसान नहीं है,
नारी का जिसके दिल में सम्मान नहीं है ||

सौ खूबियां रखते हो बेकार वो सब हैं,
गर तुममें ज़रा सा भी ईमान नहीं है ||

तुम देखो सुनो बोलो हर वक्त ही अच्छा,
हो नाम बुराई में ये शान नहीं है ||

रहने दो नवाज़िश,करम,मेहरबानियाँ अपनी,
कुछ और सितम सहने को अब जान नहीं है||

जब तुमको नहीं रखना कुछ वास्ता हम से,
तो हम को भी दीदार का अरमान नहीं है ||

पत्थर के मकानों में तुम ढूंढते हो किसको,
क्या दिल में तुम्हारे खुदा भगवान नहीं है ||

खाजाते हो धोखा कभी तुम तो “रहबर”,
क्या तुम को भी इंसान की पहचान नहीं है ||

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

लोगों में भेदो-भाव (गज़ल)

(प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका “प्रयास” अक्टूबर २०१४)

लोगों में भेदों –भाव का झगड़ा मिटाइये,
हो आदमी तो आदमी के काम आइये ||

इंसान बनके खुद को पहले दिखाइये,
तब उसके बाद मस्जिदो मंदिर बनाइये ||

इस जात पांति धर्म के बंधन को तोड़कर,
होकर के एक देश का गौरव बढाइये ||

हम है तिरंगी लोग फिरंगी भी जानते,
सब मिलके इस तिरंगे को ऊँचा उठाइये ||

गुरबत का ये अँधेरा है अब बस्तियों में क्यों,
इनमें चराग़-ए-इल्म की दौलत लुटाइये ||

माना के मुश्किलें हैं तो आसानियाँ भी हैं,
उम्मीद की किरन से दिल जगमगाइये ||

आज़ादी हमने पाई है सब कुछ लुटाके आज,
अब राष्ट्र गीत गाइये और मुस्कुराइये ||

ग़म दूर होगा पाओगे एक दम से ताज़गी,
रहबर का कोई गीत गज़ल गुनगुनाइये ||

ज़िंदा दिली से जीने का एक राज़ दूं बता,
मस्ती में रहना है तो ज़रा मुस्कुराइये ||

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

अप्सराओं स चेहरा हसीं (नज़्म)

अप्सराओं स चेहरा हसीं पाये हो,
अजनबी हो कहो किसलिए आए हो |
जिंदगी के सफ़र में अकेला हूँ मैं,
लूटने क्या मेरा दिल चले आए हो ||

फूलों की डालियों से हो महके हुए,
तितलियों जैसे आए हो बहके हुए |
हों फरिश्ते भी हैरां जिसे देखकर,
अपनी अंगड़ाई में वो असर लाए हो ||

तुम में लगती नहीं है कोई भी कमी,
दिल को क़दमों में रख दें तुम्हारे सभी |
हुस्न परियों से कोह्क़ाफ़ की लाए हो,
तुम न जाने कहाँ से चले आए हो ||

अबरुओं के ये खंजर और पलकों की तीर,
वार से जिनके देते हो दिल को भी चीर ||
साथ घातक ये हथियार भी लाए हो,
रहज़नो की क्या बस्ती से तुम आए हो ||

चाल भी चलते हो एक मस्तानी सी,
ऐसा लगता है जन्नत से आए अभी |
है गुमान आसमां से उतर आए हो,
कुछ तो बोलो कहाँ से चले आए हो ||

पास आकर के अब दूर जाते हो क्यूँ,
इतनी बेगानगी भी दिखाते हो क्यूँ |
दिल किसी और का जब चुरा लाए हो,
हमसफ़र आज बनने को क्यों आए हो ||

राज़ जो भी हो रहबर बता दो मुझे,
खोलकर अपना दिल भी दिखा दो मुझे |
अब हवासों पे मेरे तुम्ही छाए हो,
प्यार की इस डगर पर भी खुद आये हो ||

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

शहीदो लौट आओ (नज़्म)

अजब छाई हुई अहले वतन पर आज गफ़लत है |
हवालों और घुटालों से इन्हें मिलती न फुर्सत है ||
न इनको है कोई परवाह वतन मादर की अस्मत की |
शहीदो लौट आओ अब, तुम्हारी फिर ज़रूरत है ||

कभी मज़हब और मिल्लत पर भिड़ा करते हें शोहरत है |
अहिंसा धर्म है इनका लड़ा करते हैं हैरत है ||
न इनको याद है ज़िल्लत वो रुसवाई गुलामी की |
शहीदो लौट आओ अब, तुम्हारी फिर ज़रूरत है ||

सभी ज़ुल्मो सितम सहना पुरानी इनकी आदत है |
जिधर देखो उधर फैली यहाँ पर आज दहशत है ||
तुम्हारी याद ऐसे में हमें शिद्दत से है आती |
शहीदो लौट आओ अब, तुम्हारी फिर ज़रूरत है ||

तुम्हारे नाम से मिलती जहां में इनको इज्ज़त है |
तुम्हारी सरफरोशी ने ही बख्शी इनको अज़मत है ||
मिटाना है तुम्हें अब इनमें बढ़ते इख्तिलाफों को |
शहीदो लौट आओ अब, तुम्हारी फिर ज़रूरत है ||

दिलाई थी जो आज़ादी उसी की आज बरकत है |
इन्हें अशफ़ाक बिस्मिल की न अब तो याद उल्फ़त है ||
दुहाई दे रहा रहबर तुम्हें कब से यकीन जानो |
शहीदो लौट आओ अब, तुम्हारी फिर ज़रूरत है ||

आले हसन ख़ाँ (रहबर)

ऐ मेरे दोस्तो (गजल)

ऐ मेरे दोस्तो कुछ ऐसा एहतमाम करो |
जो टूटे दिल हैं उन्हें जोड़ने का काम करो ||

हमारे बीच में बस प्यार का ही हो रिश्ता|
मिटे ये रंजिशें इस का भी इंतज़ाम करो ||

भुलाके अपने शहीदों को क्या मिला तुमको |
फिर उनके जैसा ही बन करके अपना नाम करो||

हमारे देश की अज़मत यही तिरंगा है |
उसे अदब से हमेशा सभी सलाम करो ||

ये संविधान बड़ी मुश्किलों से पाया है |
इसे संभाल कर रख्खो और एहतराम करो ||

हमारी बस्तियां जलती उजड़ती हें जिनसे |
सुनो कहानियां वो किस्से भी अब तमाम करो ||

पिया था जाम जो अशफाक और बिस्मिल ने |
उन्ही की दोस्ती का पेश सब को जाम करो ||

किसी की आँख में पानी जो देख लो रहबर |
क़रीब जाके बड़े प्यार से कलाम करो ||

आले हसन ख़ाँ (रहबर)